कागज़ पे फुदकती गिलहरियाँ – काव्य संग्रह समीक्षा

 

बारिश सी छनती है, मोम सी पिघलती है!
फिसलती है संभलती है और तब कहीं जाकर ये
रूह से कागज़ पे उतरती है!
करके मुझे मुझसे कहीं विशाल मेरे अंदर बाहर तनती है,
जब मुझ में ‘मैं’ नहीं होती तब ये कविता बनती है!

कविता को एक बार पुनः परिभाषित करती ये कविता योजना साह जैन के कविता संग्रह “कागज़ पे फुदकती गिलहरियाँ” रूपी गुलदस्ते का ही एक फूल है। योजना का यह कविता संग्रह हाल ही में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ है। जर्मनी में प्रवास कर रही योजना के इस कविता संग्रह में मानो उनके, आपके , मेरे और हर उस व्यक्ति के एहसासों, विचारों, अंतर्द्वंदों तथा चिंताओं का प्रतिनिधित्व है जो सोचता है, जो स्वयं में, देश और समाज में हो रहे परिवर्तनों से सरोकार रखता है जो भावुक है जो कभी आत्म विश्वास से लबरेज़ है तो कभी उहापोह की स्थिति में स्वयं को फंसा पाता है।

संग्रह की कविताओं में कभी कवियत्री स्त्री को केवल स्त्री के रुप में मानने, समझने और सम्मान करने के मुद्दे को उठाती दिखती हैं तो कभी समाज में लंबे समय से चली आ रही उसकी भूमिका को शोषण और समर्पण के तराजू पर तोलती।

राजनैतिक परिदृश्य पर भरपूर कटाक्ष करती कविताओं के साथ ही स्वयं की खोज करने का विमर्श भी है। कोई कविता जीवन को जी लेने की चाह के चलते स्वतंत्रता की सीमाओं को भेद स्वच्छंदता की पगडंडियों पर निकल पड़ती है। सामाजिक बदलावों के चलते जीवन में आते सकारात्मक परिवर्तन व बढ़ते आत्मविश्वास का चित्रण भी बड़े ही सुलझे शब्दो में करती हैं ये कविताएं। आज के बदलते सामाजिक परिवेश में मानव को स्वयं से प्रेम करने का पाठ पढ़ाती कविताएं जीवन को जीने की कला का एक ट्यूटोरियल भी हैं। इस संग्रह में जहां प्रेम को पा लेने का सुख है वहीं बाद में प्रेमी का केवल साथी बन कर रह जाने का अनकहा दर्द भी। अपने अस्तित्व को खोने का शूल है लेकिन साथ ही साथ अपने अस्तित्व को खो कर दूसरे के काम आ जाने की संतुष्टि भी। वो सब है जो एक आम संवेदनशील व्यक्ति अपने जीवन में महसूस करता है।

भाषा सरल होते हुए भी अपने प्रभाव से अछूता नहीं रहने देती। युवापीढ़ी के स्वादनुकूल इंग्लिश के शब्दों का समायोजन कविताओं को और पठनीय व स्वीकार्य बनाता है।

– सचिन देव शर्मा 

नोट : समीक्षा उत्तरांचल पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी है।

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